सत्येन्द्र – वृतान्त 9

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अगले दिन अलंकार ने झटपट अपना काम निपटाया, एक हफ्ते की छुट्टी ली और शाम की फ्लाईट से बंगलौर पहुँच गया। एयरपोर्ट से बाहर निकलते ही उसने मेनका को फोन कर बताया कि वह उसके घर के पास ही एक होटल में रुक रहा है। उसे होटल पहुँचते पहुँचते नौ बज जाएँगे। अगर मेनका को ठीक लगे तो वे डिनर के लिए मिल सकते है या फिर अगली सुबह नाश्ते पर। मेनका ने अगले दिन नाश्ते पर पहुँचने का वादा किया।

पिछले दिन की अफरातफरी से थके अलंकार की नींद दरवाज़े की घंटी से खुली। उसने घड़ी देखी और भागते हुए दरवाज़े तक पहुँचा। दरवाज़ा खोला तो सामने मेनका खड़ी थी।

“सॉरी, देर तक सोता रह गया। आओ!”

मेनका अन्दर आई और जैसे ही अलंकार ने दरवाज़ा बन्द किया, वह मुड़ी और उससे लिपट कर रोने लगी। उसकी पीठ सहलाते हुए अलंकार ने उसे सोफे पर बिठाया और स्टूल खींच कर उसके सामने बैठ गया। फिर उसके दोनों हाथ पकड़ कर बोला, “क्या हुआ मेनका? बताओ तो सही!”

मेनका की आँखों से आँसुओं की धारा बहे जा रही थी। वह काफी देर तक कुछ नहीं बोली। अलंकार भी चुपचाप उसका हाथ पकड़ कर इंतज़ार करता रहा। आखिरकार एक गहरी साँस लेते हुए मेनका बोली, “मेरा रेप हुआ है अलंकार?”

“रेप? कब? कहाँ?”, अलंकार यह बात सुन कर विचलित हो उठा, “और तुमने मुझे बताया भी नहीं? कैसे मेनका? कौन था?”

“सत्येन्द्र!”

“क्या? सत्येन्द्रजी?”

“हाँ!”

अलंकार के कुछ समझ नहीं आ रहा था। बोलने के लिए उसे शब्द नहीं मिल रहे थे। वह कुछ देर तक चुपचाप मेनका के हाथ सहलाता रहा। फिर उसने अपने स्टूल को मेनका के और करीब खिसकाया और बोला, “ये कैसे हो गया? सत्येन्द्रजी तो… स्नेहलता दी को पता है?”

“नहीं!”

अलंकार फिर चुप हो गया। वह अपने को इस अजीब स्थिति से निकाल नहीं पा रहा था। मेनका पर विश्वास न करने का कोई प्रश्न ही नहीं था पर वह इस बात को स्वीकार नहीं पा रहा था की उसके मित्र व गुरु सत्येन्द्रजी ऐसा कुछ कर सकते हैं। उसके लिए इस संभावना की कल्पना भी मुश्किल पड़ रही थी। अपने को कुछ समय देने के लिए वह मेनका से एक अटपटा प्रश्न कर बैठ, “चाय पियोगी?”

मेनका के उत्तर का इंतज़ार किए बिना वह उठा और पास टेबल में पड़े इलेक्ट्रिक कैटल में पानी डालने लगा। मेनका अब भी सिसक रही थी। अलंकार कभी मेनका की ओर देखता तो कभी चाय की ओर। फिर उसने दो कपों में टी बेग डाल कर गर्म पानी उड़ेल दिया। प्लेट में दूध चीनी के पाउच व चम्मच रख कर वह मेनका के पास चला आया और वापस स्टूल पर बैठ गया।

“तो अब क्या करना है?”

“पता नहीं?”

“रिपोर्ट करें?”

“पता नहीं?”

“क्यों? उस घटिया आदमी को सजा नहीं दिलवानी क्या? उसे रोकना नहीं है क्या?”

“पता नहीं!”

“क्या पता नहीं, पता नहीं कहे जा रही हो मेनका? कुछ तो करना होगा ना?”

चाय के कप में चीनी घुलाती हुई मेनका बोली, “समझ नहीं आ रहा है क्या कहूँ, किससे कहूँ, कहाँ जाऊँ! सच में कुछ समझ नहीं आ रहा है अलंकार।”

“भरोसा करती हो तो मुझे खुल कर सारी बता सकती हो। वादा करता हूँ कि इस पूरी लड़ाई में तुम्हारे साथ खड़ा रहूँगा। और लड़ाई के बाद भी। यूँ ही मज़ाक में नहीं कहा था मेनका की मैं तुमसे प्यार करता हूँ।”

“मैं जानती हूँ अलंकार, तभी तो तुम्हें वह सब बता रहीं हूँ जो अब तक मैंने किसी को नहीं बताई।”

“तुम्हें यह बात मुझे पहले ही बता देनी चाहिए थी मेनका। यूँ क्यूँ घुट रही हो अकेली? इस सब में तुम्हारी क्या गलती है?”

मेनका कुछ देर तक तो चुप रही फिर धीरे से बोली, “इतना आसान नहीं है यह सब। तुम्हें याद है ना कि तुमने मुझसे पूछा था की क्या मेरा किसी के साथ प्रेम सम्बन्ध है। तब मैंने कहा था कि प्रेम तो नहीं पर शारीरिक सम्बन्ध है। वह सम्बन्ध सत्येन्द्र के साथ था।”

“क्या?”

“हाँ! सब अचानक ही हो गया। मुझे सोचने का मौका भी नहीं मिला। एक पुराने जख्म को मिटाने के लिए मैंने अनजाने में उनका दामन थाम लिया।”

थोड़ी देर की चुप्पी के बाद मेनका बोली, “फिर तुम मिल गए! तुम्हें चाहने की हिम्मत मुझे उनके साथ रहने से मिली। उनसे सम्बन्ध बना कर मिली। और जब तुमसे मिली तो उनसे दूरी बना ली। पर वे इस दूरी को समझ नहीं पाए। अपने मर्द होने की ताकत उन्होंने आखिर दिखा ही डाली!”

“मैं ठीक से कुछ समझा नहीं मेनका। मतलब हुआ क्या?”

मेनका ने चाय खत्म कर कप को टेबल पर रखा, बाल पीछे किए, अपनी आँखों को पोंछा और फिर अलंकार की आँखों में आँख डाल कर बोलने लगी, “जो बताने वाली हूँ उसे सुन कर घबरा मत जाना। सवाल हों तो पूछ लेना पर बिना पूछे किसी निष्कर्ष पर मत पहुँचना। और हाँ, मेरा साथ देने, या कोई वादा निभाने की बाध्यता नहीं है तुम पर। तुम हमेशा मेरे मित्र रहोगे। अपनी जिन्दगी की पेचीदगी में तुम्हें उलझाना नहीं चाहती हूँ अलंकार।”

“कैसी बातें कर रही हो मेनका? इस छोटी जिन्दगी में भी बहुत कुछ देख और झेल रखा है मैंने।  अकेले कटे बचपन और जवानी के बाद अगर मैंने किसी के साथ जीवन बिताने का सपना देखने की हिम्मत की तो वह तुम्हारे कारण मेनका। तुमसे मुझे ताकत मिलती है। मैं तहेदिल से तुम्हें अपना मानता हूँ। तुम्हारी व्यथा को अपनी व्यथा मानता हूँ। तुम्हें यह सब सुनने में अजीब लगेगा मेनका पर सच तो यही है की तुम्हारे सिवा मेरा इस दुनिया में कोई नहीं है। इसलिए बिना किसी झिझक मुझे पूरी बात बताओ। फिर जो भी निर्णय लेना होगा, उसे लेंगे और साथ भोगेंगे।”

मेनका ने अपना एक हाथ अलंकार के हाथों के ऊपर रखा और फिर फर्श की ओर देखती हुई अपनी व्यथा सुनाने लगी। सारी बातें बताई उनसे अलंकार को – अपने छात्र जीवन का अनुभव, सत्येन्द्र के साथ बंगाल भ्रमण, कल्कत्ते की वह शाम, उसके बाद के अंतरंग अनुभव और वह भयावह हादसा। फिर मेनका का बंगलौर चले आना और सत्येन्द्र का ईमेल। ईमेल का जिक्र आते ही मेनका फिर रोने लगी। अलंकार स्टूल से उठ कर उसके बगल में जा बैठा और उसके कंधे पर हाथ रख उसे ढाढस बँधाने लगा। मेनका ने उसके कंधे पर अपना सिर रख दिया और बहुत देर तक सिसकती रही। अलंकार चुपचाप वहीं बैठा रहा और उसकी पीठ सहलाता रहा। फिर यकायक मेनका ने सिर उठाया, अलंकार की ओर देखा और बोली, “अब मैं क्या करूँ?”

“अगर वह यूँ ही छूट गया तो जब जब तुम्हें दिखेगा, तुम्हें दुःख भी होगा और गुस्सा भी आएगा। और दिखेगा जरुर क्योंकि जिन रास्तों से हम गुज़र रहे हैं वे आपस में मिलते रहेंगे। तुम उससे कुछ कह नहीं पाओगी और वह भी शायद कुछ नहीं कहेगा। ईमेल पर उसका उत्तर तुम पढ़ ही चुकी हो। तुमने कुछ नहीं किया तो यह सब बातें तुम्हें विचलित करेंगी। तुम्हें एक नॉर्मल जिन्दगी जीने नहीं देंगी। क्लोसर की तलाश में तुम्हारी अपनी जिन्दगी ज़ाया हो जाएगी पर उसकी जिंदगी में शायद कोई फर्क ही नहीं पड़ेगा। मुझे लगता है तुम्हें शिकायत करनी चाहिए। वैसे भी इस तरह के लोगों का असली चेहरा सबके सामने आना चाहिए। क्या पता कल कोई और…”

अलंकार तो टोकते हुए मेनका बोल पड़ी, “पर मुझ पर भी तो कीचड़ उछाला जाएगा अलंकार। मेरे चरित्र को छलनी किया जाएगा। हमारे समाज को नहीं जानते क्या तुम?”

“तुम उसकी चिन्ता मत करो मेनका। कोर्ट में और कोर्ट के बाहर भी मैं इस सब से निपट लूँगा। लोग तो कुछ ना कुछ कहते रहें है और कहते रहेंगे। उसका कुछ कर नहीं सकते। लोगों की सोच हमारे निर्णय का आधार नहीं होना चाहिए।”

फिर कुछ क्षणों की चुप्पी के बाद बोला, “…और इस सब से तुम्हारे और मेरे रिश्ते पर कोई फर्क नहीं पड़ेगा। हमारे निर्णय जैसे थे वैसे ही रहेंगे। एक धूर्त के कारण हमें अपना भविष्य खराब नहीं करना चाहिए। उसके जेल जाते ही हम शादी कर लेंगे। तुम चाहो तो किसी अन्य देश में जा कर बस जाएँगे। इसलिए नहीं की हमें किसी से डरना चाहिए या किसी की परवाह करनी चाहिए पर इसलिए ताकि हम अपने आगे का सफर एक नए सिरे से शुरू कर सकें। ताकि हमारा इतिहास हमारे वर्तमान पर हावी न हो सके। उस जाहिल को अपनी नाखुशी का तोहफा देकर क्या फायदा मेनका!”

मेनका ने एक फीकी सी मुस्कान दी और “तो.. ” कह कर चुप हो गई।

“कल दिल्ली चलते हैं और पुलिस रिपोर्ट दर्ज करते हैं!”

“ठीक है”, मेनका बोली, “अब मैं चलूँ?”

“चलूँ? हम तो साथ नाश्ता करने वाले थे शायद? बहुत भूख लगी है यार।”

“ठीक है। पर बाहर नहीं जाएँगे। यहीं कमरे में मँगा लेते है।”

“जैसा तुम चाहो”, कहते हुए अलंकार ने मेनू उठा कर मेनका को थमा दिया। “तुम आर्डर करो। तब तक मैं फ्रेश हो कर आता हूँ।”

“तुम्हारे लिए क्या ऑर्डर करूँ?”

“जो तुम चाहो”, कहता हुआ अलंकार बाथरूम में चला गया।

नाश्ते के बाद वे कमरे में ही रहे। माहौल थोड़ा अटपटा सा था। दोनों थोड़ा असहज महसूस कर रहे थे इसलिए ज्यादा वक्त टीवी देखने में गुजर गया। दिन का खाना भी उन्होंने कमरे में ही मँगा लिया। शाम को वे थोड़ी देर के लिए पास के पार्क में टहलने गए और मेनका वहीं से घर चली गई। उसे पैकिंग करनी थी। अलंकार भी मेनका के साथ उसके घर जाना चाहता था पर मेनका ने मना कर दिया। उसे लगा की ऐसे समय में अलंकार का अचानक घर आना ठीक नहीं रहेगा।

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1 Response

  1. October 9, 2022

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