आज तो प्रिये कोई बहाना ना बनाओ!

सावन की वर्षा और यथार्थ की बारिश कितनी अलग हैं। कविताओं, कहानियों व गीतों का सावन सपने जगाता है। यथार्थ का सावन मुँह चिढ़ाता है। उसी चिढ़ावन पर कुछ पंक्तियाँ।

दिल्ली की एक नवविवाहिता बारिश की बूंदों से बहक कर कुछ आस लगा बैठी है। वो इस वर्षा का पूरा लुत्फ उठाना चाहती है। बोल कर अपनी भावनाओं को व्यर्थ जाया नहीं करना चाहती इसलिए उसने अपने प्रिय को यह टेक्स्ट मैसेज भेजा है –

दुपहिये में बैठ सीधे घर चले आओ,
आज तो प्रिये कोई बहाना ना बनाओ;
घिर आये हैं बादल, गिरने लगी हैं बुँदे,
फिर दिखने लगे सपने, फिर जागी हैं उम्मीदें;
मरने न दो उम्मीदों को, महज सपने ना दिखाओ,
घिर आये है बादल प्रिये, अब घर चले आओ!

खरीद लाई मैं बेसन और कट गए हैं प्याज,
टप-टप कर रिझा रही मुझे बुँदों कि आवाज;
जल्दी बताओ मुझे कि तुम अब घर को चले,
बिन बहाने कोई, बिन छाते अब हो भीगने लगे,
फिर मैं भी नाचूंगी आज उन्ही बूंदों में साथ,
टप-टप कर बुला रही मुझे वर्षा की आवाज;
अब तो दुपहिये में बैठ सीधे घर चले आओ,
आज तो प्रिये कोई बहाना ना बनाओ!

फिर आएगा सावन पूरे एक बरस के बाद,
यदाकदा ही होती है अब बिन सावन बरसात;
इस अवसर को तुम मुझसे छीन न लेना आज,
टप-टप कर के चिड़ा रही मुझे बुँदों कि आवाज।
अब तो दुपहिये में बैठ सीधे घर चले आओ,
आज तो… आज तो प्रिये कोई बहाना ना बनाओ!

प्रियतम यथार्थवादी प्रेमी है। वो फिल्मों के हीरो की तरह अपने दुपहिये को बसों और कारों के ऊपर नहीं दौड़ा सकता। वो जो चाहता है वो कर सके यह जरूरी नहीं। फिलहाल तो वो केवल प्रियमता ही गुहार का उत्तर लिख सकने के ही काबिल है –

छोड़ कर बहाने सारे, लगा आज मैं घर को आने,
सावन के सपनों में तेरे, प्याज के पकोड़े खाने;
नहीं छुपा मैं, सब कि तरह, फ्लाईओवेरों के नीचे,
चलता रहा दुपहिये में, भीगते, ठिठुरते, आँखे मीचें;
पर फिर भी तेरी उम्मीदों का प्रिये आज काम हो गया,
दो बूँदें क्या गिरी, सारे शहर में ट्रैफिक जाम हो गया!

इस कविता का प्रेरणास्रोत एक युगल जोड़ा है जो अब उतना युगल नहीं बचा। उनकी हकीकत बयान करता तो प्रियतमा कहती, “दुपहिये में बैठ सीधे घर चले आओ, आज तो प्रिये जहाज न उड़ाओ!” पर फिर ट्रैफिक जाम कैसे होता?

Leave a Reply

Your email address will not be published. Required fields are marked *