पहाड़ और तुम्हारी सहानुभूति

पर्यावरण और पारिस्थितिकी पर चर्चा करना आसान है पर उनके संरक्षण की ओर कदम बढ़ाना काफी कठिन है। मुद्दा तब और भी गंभीर हो जाता है जब बात पहाड़ों की हो क्योंकि पहाड़ जितने सुंदर और बुलंद हैं, उतने ही नाजुक भी हैं।

दरअसल आधुनिकता का यह दौर बड़ा ही विचित्र है। हम सहानुभूतियाँ तो रख लेते हैं पर बदलाव लाने के लिए कुछ नहीं कर पाते। हम कबाड़ से जुगाड़ तो करते हैं पर कबाड़ कम करने  की ओर कदम नहीं उठा पाते। हमने व्यवस्थायें ही कुछ ऐसी बना ली हैं की समस्त कोशिशें नाकाम होती हुई सी लगती हैं।

मसला शायद यह भी है की हमारा सामूहिक ध्यान अक्सर लक्षण पर केंद्रित रहता है जिसके कारण शायद हम रोग देख ही नहीं पाते। या यह भी हो सकता है की हम विविध कारणों से उसे देखने का प्रयास ही नहीं करते हैं। यह कविता उसी रोग को चिन्हित करने का एक प्रयास है।

पहाड़ और तुम्हारी सहानुभूति

उन रेल गाड़ियों के लिए
जो पहाड़ों पर नहीं चलीं,
उन रेल लाइनों के लिए
जो पहाड़ों पर नहीं बिछीं,
उनके भारी लोह पथों के
स्लीपरों के लिए
नग्न हुए ये पहाड़
अब भी ताकते हैं टुकुर टुकुर,
जब तुम दो पेग दारु के साथ
बिताते हो एक पहाड़ी शाम,
और व्यक्त करते हो अपनी राय
अंग्रेजी हुकूमत की
नासमझी के खिलाफ;
अच्छा लगता है पहाड़ों को
यह जानकर की तुम्हारी सहानुभूति
पहाड़ों के साथ है!

पहाड़ों और उसके जंगलों को
सरकारी जागीर समझ,
उसकी हर ढाल पर रोपे गए वो पेड़
जो कास्तकार के किसी काम नहीं आए,
जिनसे निकले लीसे से
ओखलकांडा के मदन नहीं,
न्यू साउथ वेल्स के
मैडी का मकान दमका;
इन जंगलों के जन्मदाता
कब के भारत छोड़ गए,
पर ये जंगल आज भी
हमें मुँह चिढ़ाते हैं,
कभी हँस कर,
कभी जल कर;
इसी लिए
जब तुम दो पेग दारु के साथ
बिताते हो एक पहाड़ी शाम,
और व्यक्त करते हो अपनी राय
अंग्रेजी हुकूमत की नासमझी के खिलाफ,
तो अच्छा लगता है पहाड़ों को
यह जानकर की तुम्हारी सहानुभूति
पहाड़ों के साथ है!

फिर हुई नियति के साथ
एक पूर्वनिश्चित मुलाकात;
पहाड़ों को लगा
अब जंगल बच जायेंगे,
जंगलों को लगा
अब पहाड़ बच जायेंगे;
फिर भी बिक गया
पंगु के पेड़ों का जंगल,
क्रिकेट के बल्लों और
टेनिस के रैकेटों के लिए;
गौरा देवी और उनके साथी
चिपक गए पंगु के उन पेड़ों से
अपने जंगल बचाने के लिए;
वो जंगल जो उनका मायका था,
‘अनपढ़’ विद्रोह की इस खबर में
बहुत जायका था,
सबने सुना, तुमने भी सुना,
और किया सलाम उन जज्बातों को
जो स्वार्थी नहीं होते;
पेड़ों को बचाने के लिए
पेड़ों से चिपक जाना
न जाने कब
तुम्हारा भी अभिमान बन गया;
तभी तो तुम बिन पिए भी
बोल सकते हो निर्विघ्न
जंगलों और इंसानों के रिश्ते की
गर्माहट के बारे में,
और हर बार
जब तुम बोलते हो
तो पहाड़ सुनता है,
अच्छा लगता है पहाड़ों को
यह सुनकर की तुम्हारी सहानुभूति
पहाड़ों के साथ है!

पर अब जब
पहाड़ों को काटा जाता है,
नदियों को बाँधा जाता है,
उस पानी के लिए
जो तुम्हारे नलके में आता है,
उस बिजली के लिए
जो तुम्हारा घर चमकाता है;
जब दम तोड़ती मछलियों सी
छटपटाती हैं
डूबते हुए पेड़ों की नाजुक पत्तियाँ,
जब डूबते हुए गाँव घर
सिसक भी नहीं पाते हैं,
उनके अपने जब उनसे
बस यूँ ही बिछुड जाते हैं,
तुम्हारी खुशियों के लिए
विस्थापित ये लोग
मुड़ कर देखने की
हिम्मत भी खो देते हैं,
बात बात पर
बच्चों सा रो देते हैं,
पर अब तुम नहीं बैठते
दो पेग दारु के साथ,
बिताते हुए एक पहाड़ी शाम,
व्यक्त करते हुए अपनी राय
जिसे सुन कर
पहाड़ों को अच्छा लगे,
हारते हुए भी उसे सुकून मिले,
कि तुम्हारी सहानुभूति
अब भी पहाड़ों के साथ है!

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1 Response

  1. जुन्याली उत्तराखंड says:

    कविता में पहाड़ का यथार्थ निहित.

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