गुड़गाँव टू गुरुग्राम

नाम बदलने से शहर नहीं बदलते। शहर बदलने से लोग नहीं बदलते। लौट कर जाओ तो बस बढ़ी हुई चकाचौंध दिखती है। मूल नहीं बदलता क्योंकि बदलाव समय से नहीं, करने से आता है। और करने के लिए चाहत जरूरी है। भागते लोग चाह कैसे सकते हैं भला। उसके लिए तो ठहरना पड़ता है।

भला हुआ मेरी गगरी फूटी! पर जब गगरी का बोझ सिर पर था तो थोड़ा कुछ लिखा था उसके बारे में, जिसे साझा कर रहा हूँ इन छह कविताओं/क्षणिकाओं के माध्यम से। इन्हीं पंक्तियों के लिए किसी ने कहा था – इतनी शिकायत है तो छोड़ क्यों नहीं देते शहर! भाव ‘पाकिस्तान चले जाओ’ वाला था इसलिए पलट जवाब देना मुनासिब नहीं समझा। घृणा करने वाले इश्क को कभी नहीं समझ सकते!


वड्डा शहर, वड्डे लोग

वड्डी वड्डी गाडियाँ,
और इत्ते वड़े मकान;
सड़क फिर भी पार्किंग लॉट,
और पिछवाड़ा कूड़ादान!


ग्रीन गुडगाँव!

प्लास्टिक की हरी रस्सियों से
सिंचित सरकारी प्रभाव,
चौराहों पर हुडा* का बुना नारा
‘वेलकम टू ग्रीन गुडगाँव!’

*हरियाणा अरबन डेवलेपमेंट अथोरिटी

गुडगाँव खास

कुछ आम बिल्डिंगों में
गुडगाँव की,
कुछ खास सी बातें
होती है;
आम लोगों की
आम लिफ्ट,
पर खास, खासों को
ही ढोती है।

मत कहना खासों को
नौकर-सर्वेन्ट,
शब्दावली ये हुई
पुरानी है;
डोमेस्टिक-हेल्प सरीखे
शब्द अलंकृत,
नव समाजवाद
की कहानी हैं।


मॉल का टशन

सात टके का एटमोस्फीयर
और दस टके का ब्रैंड,
तीन टके का टशन है अपना,
पाँच का एटेंडेंट;

होता होगा सदर में सस्ता,
वही माल, कम दाम;
पर सदरी मलहम, मलहम रहेगा,
नहीं कभी बनेगा बाम!


गुड़गाँव मेट्रो

मेरे चलने कि क्षमता का
अच्छा लगा कयास;
गुडगाँव में मेट्रो आई तो पहले,
गाड़ीवालों के पास;

नहीं था शायद ये मूल विचार,
‘किसी’ ने लगाया था जोर;
थोड़ी सियासत और पैसों ने
दिया इंजन का मुख मोड़!


गुडगाँव की आवाज़

अट्टालिका की नींव तले
दबे हुए एक बीज का
सहमा हुआ अहसास हूँ मैं;

संगमर्मर की डाल पर बैठ
गागर कंकड खोजते
काग की प्यास हूँ मैं;

नव नगर की सड़कों में
खोई पगडंडियों का
आभास हूँ मैं;

हाँ, दबा हुआ हूँ
पर मरा नहीं हूँ,
गुडगाँव की आवाज़ हूँ मैं!

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