फौजी भूत का जंगल

बड़े बड़े शहरों की बड़ी बड़ी बातें, पर जीने का मज़ा तो छोटे शहरों में ही आता है। और अगर ये छोटा सा शहर कोई पहाड़ी शहर हो तो वाह जी वाह! उसकी तो बात ही निराली है! ये कहानी भी एक पहाड़ी शहर की है – शहरों का शहर, ऐतिहासिक शहर अल्मोड़ा।

अल्मोड़ा की कई तंग गलियों में से एक गली में है राजू गुरु की चाय की दुकान। दुकान छोटी जरूर है पर राजू गुरु का दिल बहुत बड़ा है इसीलिए हर उम्र और तबके के कई सारे लोग इस छोटी सी जगह में आसानी से समा जाते हैं। सभी अपना पैसा, अपनी शौहरत, अपनी डिग्रीयाँ घर छोड़ कर आते हैं। और फिर शुरू होता हैं गरमागरम चाय और पकोड़ों के साथ गरमागरम बहसों और गप्पों का सिलसिला। कभी कभी बातों ही बातों में लड़ाईयाँ भी हो जाती हैं पर जितनी तेजी से पारा चढ़ता है उतनी ही तेजी से उतर भी जाता है। ठन्डे इलाकों में रहने का यह एक बहुत बड़ा फायदा है!

आज पारा गरम नहीं था। बीते दिन की बारिश ने मौसम को सुहाना कर दिया था। नीले आकाश में लालिमा बिखेरता हुआ सूरज डूबने की तैयारी कर रहा था। कलरव करते पक्षी अपने घोसलों को लौट रहे थे। आकाश के एक कोने में लटका काले बादल का एकलौता टुकड़े हरदा को पूछ रहा था, “हरदा, छाता लाए हो ना? इस बुढ़ापे में भीगते हुए घर जाओगे तो बुढिया तो डाँटेगी ही, खाँसी बुखार भी माथा चूम लेंगे!”। हरदा छाता नहीं लाया था पर उसे अभी घर जाना मंजूर नहीं था। इतनी गरमागरम महफ़िल को कोई कैसे छोड़ सकता था। और फिर मुन्ना भाई के तर्कों को भी तो काटना था। उसके बिना रात को तीसरी रोटी कैसे पचेगी?

हुआ यूँ कि आज शाम हरदा बाज़ार गए थे। कई दिनों से पेट ठीक से खुल नहीं रहा था तो उन्होंने सोचा क्यों ना बाज़ार जाकर जगमोहन से कोई आयुर्वेदिक दवा ले आएँ। इस उम्र में शौचालय में देर तक बैठना भी तो अच्छी खासी मुसीबत है। घुटने जवाब देने लगते हैं। वे जब बाज़ार से लौट ही रहे थे तो उन्होंने देखा की काफ़ी सारे बच्चे एक गाने पर नाचते करते हुए पर्यावरण और प्रदुषण के बारे में कोई सन्देश दे रहे थे। पास खड़े लड़के इस प्रदर्शन को फ्लैश मॉब कह रहे थे पर उस नाम का अर्थ हरदा को समझ नहीं आया। बस इतना समझ आया की बच्चे नाच गा कर यह बताना चाह रहे हैं की घरों और दुकानों से निकलने वाला कूड़ा पर्यावरण के लिए बहुत खतरनाक है इसलिए उसका सही निस्तारण बहुत जरूरी है। पर हरदा का मानना था की आम आदमी इस विषय पर कुछ नहीं कर सकता। कुछ बदलना होता तो अब तक बदल चुका होता। उनका यह भी मानना था की बच्चों को इन फिजूल की बातों में समय खराब नहीं करना चाहिए।

“ठीक कह रहा हूँ ना राजू? पर्यावरण और प्रदुषण तो सरकार और कानून का मुद्दा हुआ ना? हम कैसे ठीक कर सकते हैं इसको? यार, जमाना ऐसा आ गया है की हमारा बच्चा ही हमारी नहीं सुनता तो फिर ये समाज क्या सुनेगा? सबको अपनी जैसी करनी होती हैं। आज तक तो भाई ऐसा ही होता आया है। और शायद ऐसा ही होता रहेगा। फालतू में समय खराब करने की जगह बच्चों को चुपचाप पढ़ाई करके आगे खिसक लेना चाहिए। यहाँ अलमोड़े में रखा ही क्या है?”

राजु गुरू आज चुप चुप से थे। आज विरोध का कमान मुन्ना भाई ने संभाल रखा था। “हरदा, गांधीजी और सुभाष चन्द्र बोस भी ऐसा ही सोचते तो हो गया था भारत आज़ाद। आप आज भी रानी विक्टोरिया की लम्बी उम्र के लिए हवन कर रहे होते नंदा देवी मंदिर में!”

“अब गाँधी बोस बीच में कहाँ से आ गए यार? हर चीज में राजनीति क्यों घुसेड़ देते हो!”

“हुँह! आपकी बात नहीं सुनी तो आजादी की लड़ाई भी राजनीति हो गई। वाह हरदा! वाह!”

“अरे यार, वो बात अलग थी। देश की बात थी! विदेशी हुकूमत को भगाने की बात थी!”

“तो ये नहीं है क्या देश की बात? अरे ये तो उससे भी बड़ी बात है – हमारे जीवन की बात है! यार हरदा, सोमेश्वर के खेतों में पड़ने वाला जहर जब कोसी नदी के साथ नीचे आता है तो हम पीते हैं उस जहर को अपने पानी में। और हमारा सारा कूड़ा जो फलसीमा के पास फैंका जाता है ना, उसका सारा जहर बरसाती पानी के साथ सुयाल नदी में जाता है, जो क्वारब में कोसी में मिलती है इसलिए वहाँ से आगे रहने वाले लोग हमारा पैदा किया हुआ जहर पीते हैं। हमारे आने वाली नस्ल खराब हो रही हैं और आप हो की… अब नहीं जागोगे तो कब जागोगे हरदा? बुढ़ापे में तो कम से कम हिसाब किताब बन्द कर दो। अब चार्टर्ड अकाउंटेंट नहीं हो आप। रिटायर हो गए हो, रिटायर!”

“अक्ल रिटायर नहीं हुई मुन्ना। तुम्हारे जैसा आदर्शवादी बनता ना – तो सस्पेंड होता, रिटायर नहीं।”

“लो, हम कौन सा सस्पेंड हुए हरदा। हमारे बच्चों ने भी खाना खाया। हमारी छत भी बन गई। थोड़ी छोटी है पर सर ढँकने को काफ़ी है। अरे, अपने को विस्तृत करो हरदा। आज की तारीख में पर्यावरण एक बहुत बड़ा मुद्दा है। गुलामी से भी बड़ा!”

“तो? तुम बदलोगे इस दुनिया को? तुम बचाओगे दुनिया? हो गया यार! अरे राजू गुरु, एक चाय और पिला दे यार। इस मुन्ना ने दिमाग का दही बना दिया है। सारा मूड खराब कर रखा है शाम से।”

अब तारा बाबू की बारी थी जंग में कूदने की, “यार मुन्नादा, बात तो आप ठीक कर रहे हो पर ये सब ऐसे नहीं बदलेगा. गाँधी या बोस चाहिए बॉस।”

“गाँधी या बोस चाहिए? …हो गया यार! अबे कब तक किसी का इन्तज़ार करोगे। और कौन सा गाँधी या बोस ने अकेले जंग लड़ी थी। सैकड़ों लोग थे उनके साथ। वो लोग नहीं होते ना तो ये लोग भी कुछ नहीं होते। हाँ, वो नेता थे। उन्होंने लोगों को जागरूक किया। आगे आगे चले। पर अहम भूमिका तो लोगों की ही थी ना? अँगरेज़ उसी भीड़ से तो डरा ना?”

कुछ क्षणों के लिए चुप्पी सी छा गई। राजु गुरू ने हरदा को चाय थमाई। उधर चाय की चुस्की के साथ बीड़ी फूँकता पप्पू सबकी बातें बड़े गौर से सुन रहा था। बीड़ी का धुँआ औरों को परेशान न करे इसलिए वह थोड़ा दूर खड़ा था जहाँ से वो जोर से बोला, “टूटे काँच को कोई नहीं जोड़ता, अकेला चना भाड नहीं फोड़ता”। सब हँस दिए। पप्पू अधिकतर समय चुप ही रहता था और जब मुँह खोलता तो उसके मुँह से उसकी विचित्र तुकबंदी ही निकलती – अधिकांशतः खुद की बनाई हुई। ज्यादा पढ़ा लिखा नहीं था पप्पू। छोटे मोटे काम करके घर चला लेता था। पर था पक्का रसिक।

“ठीक कह रहा है यार पप्पू तू। पर ये हरदा कब समझेगा? कोशिश तो हम सभी को करनी हुई ना? क्यों?”

“वही तो मैं भी कह रहा हूँ मुन्ना। जब तक सब आगे नहीं आते कुछ नहीं होगा। क्यों उन बेचारे बच्चों का समय खराब करना?”

“फिर वही बात हरदा! अरे कहीं से तो शुरुआत होगी ना यार। धीरे धीरे बात आगे जाएगी। आप भी तो बच्चे ही पैदा हुए थे ना? फिर धीरे धीरे बड़े हुए होंगे। स्कूल कॉलेज गए होंगे। फिर नौकरी मिली होगी। फिर शादी हुई होगी। फिर बाप बने होंगे। और फिर बूबू। या सीधे भारत सरकार के अकाउंटेंट पैदा हुए?”

हरदा को मुन्ना भाई के बात करने का यह अंदाज़ बिलकुल पसन्द नहीं आया। चाय की आखिरी चुस्की ले कर उन्होंने गिलास को ऐसे पटकते हुए टेबल पर रखा मानों उन्होंने आज का आखिरी पेग हलक से उतार लिया हो। राजू गुरु का दिल धक्क सा हुआ। आँखें मींचते हुए उन्होंने गौर से अपने चाय के गिलास को देखा। पिछली बार जब हरदा ने ऐसे ही गिलास पटका था तो वह चटक गया था।  अब रोज रोज के ग्राहक से गिलास का पैसा क्या लेना, ये सोच कर राजू गुरु चुप कर गए। पर नुकसान तो नुकसान ही हुआ ना। मकान के चक्कर में हुई उधारी से परेशान राजू गुरु सोच रहा था कि ऐसे दो चार ग्राहक और आ जाएँ तो हो गई दुकानदारी और बन गया मकान!

पप्पू राजू गुरु के मन को भाँपता हुआ बोला, “सावन में आकाश नीला, कंगाली में आटा गीला!”

राजू गुरु को तो पता नहीं क्या समझ में आया पर तारा बाबू को बात आगे बढाने का मुद्दा मिल गया। या शायद यूँ ही हाँक गए, बातों के सिलसिले को जिन्दा रखने के लिए, “सही कह रहा है रे पप्पू तू। सब सोए पड़े हैं और अगर कुछ जाग रहे हैं या जागने की कोशिश कर रहें हैं तो उन्हें हरदा कोस रहे हैं। मैं तो कहता हूँ यार कि अगर कोई कुछ अच्छा करने की कोशिश कर रहा है ना तो उसे बल दो। और अगर बल नहीं दे सकते तो मत दो, कोई बात नहीं, पर नकारो तो मत। किसने कहा खुद जाओ कूड़ा बीनने। मत जाओ! पर जो जा रहा है उसे तो मत रोको। अरे, किसी का हौंसला बढाना भी बहुत बड़ी मदद होती है। अकेले कुछ नहीं होता हरदा। साथ काम करना पड़ता है बदलाव के लिए। अकेले तो केवल भूत काम रहता है, भूत! वैसे सुना भूत भी नाचने के लिए साथी ढूँढता है।” ये कह कर तारा बाबू जोर से हँस दिए, मानो कोई चुटकुला सुनाया हो पर किसी और को इस बात पर हँसी नहीं आई।

पर भूत की बात सुनते ही राजू गुरु के कान खड़े हो गए। उन्हें भूतों में बहुत दिलचस्पी थी। भूतों वाली कहानियाँ पढ़ते। भूतों वाली फिल्में देखते – वो भी एक ही फिल्म कई कई बार। अंग्रेजी में अंगूठा छाप थे पर भूतों की अंग्रेजी फिल्में भी बड़े चाव से देख लेते थे। उन्होंने तो भूतों की फ्रेंच और जर्मन भाषा की फिल्में भी पचा कर डकार रखी थी। बहस में कूदते हुए वो बोले, “अरे गुरु, भूतों से याद आया, कल यहाँ दो कस्टमर बैठे थे। पिथौरागढ़ के पास एक जगह हैं ना डीडीहाट, वहीं के किसी गाँव के थे। जंगल में आग, चीड़, वगैरह की बात चल रही थी। एक अँगरेज़ भी बैठा था। बढ़िया हिन्दी बोल रहा था। कह रहा था की उत्तराखंड में नया जंगल तो एक नहीं बना पर पुराने जंगल धीरे धीरे उजड़ रहे हैं। ऐसे में एक दिन सब कुछ खत्म हो जाएगा। अँगरेज़ की बात सुन कर डीडीहाट वाले कह रहे थे की उनके वहाँ एक ‘नया’ जंगल है जो किसी फौजी भूत ने बनाया है। सुना विशाल जंगल है। लाखों पेड़ हैं। अँगरेज़ तो हक्क रह गया। पता-वता पूछने लगा और बोला वह जरुर जाएगा वहाँ।”

राजू गुरु ने बात खत्म भी नहीं करी थी कि हरदा बात को नकारते हुए सिर हिलाने लगे। इस बात को आगे बढ़ाने की उनकी कोई इच्छा नहीं थी पर बाकी सभी लोग उत्सुक थे। उनके कोतुहल को राजू गुरु भाँप गए। चूल्हे की आँच को धीमी कर वो अपनी चाय का गिलास हाथ में पकड़ कर एक कथावाचक के रूप में स्टूल पर आ बैठे। इतने पढ़े लिखे ज्ञानी लोगों को कथा सुनाना कोई छोटी बात है क्या? राजू गुरु मूड में आ गए।

“सुना वहाँ जंगल खत्म हो चुका था। कुछ हिस्सा चीड़ खा गया तो कुछ सपाट मैदान बन गया।  गाँव की औरतें चारे और लकड़ी के लिए दूर जाती थी बल। गाय बकरी चराने भी वहीं जाना हुआ।  अगर किसी की गाय या बकरी शाम को घर नहीं पहुँची तो उसे ढूँढने जाना भी मुसीबत इसलिए  भगवान का नाम लेकर सो जाते थे बल लोग। जिसका भाग अच्छा हुआ, अगले दिन उसका जानवर मिल जाता था। नहीं तो बाघ के मजे। लोग सोचते रहते कि यार जंगल पास ही होता तो कितना अच्छा होता। पर जंगल पास कैसे आए? जंगल कौन हिला सकता है? नया जंगल बन सकता है शायद पर कोई आसान काम थोड़ी हुआ जंगल बनाना? हज़ारों साल लग जाते हैं बल!

उसी दौरान उनके गाँव का एक फौजी समय से पहले रिटायरमेंट ले कर घर आ गया। उससे महिलाओं का दुःख देखा नहीं गया। उसने पेड़ लगाने कि सोची। लगाए भी। पर गाँव वाले उजड्ड ठहरे। उन्हें फौजी कि मंशा नहीं दिखी। कभी बच्चे पेड़ उखाड जाते तो कभी घसियारिन छोटे छोटे पेड़ काट घर ले जातीं। और बचा कुचा गाय बकरी चर जाते। फौजी ने गाँववालों को कई बार समझाया। सब हाँ हाँ तो करते पर कोई बदलने को तैयार नहीं था। उसकी सारी मेहनत खराब हो गई।

एक दिन भरी दोपहर में ‘मर्यूँ मैंश मर्यूँ मैंश’ कहते हुए बच्चे अपने घरों की ओर भागे। मर्यूँ मैंश यानी मरा हुआ आदमी। सभी गाँव वालों के कान खड़े हो गए।

“सिबअ सिब बेचारा! कौन होगा वो?”
“कैसे मरा होगा आदमी?”
“कहीं कोई अपना ही आदमी गिर कर तो नहीं मर गया?”
“कहीं कोई बीमार आदमी तो नहीं था?”
“कहीं बाघ ने तो नहीं मारा उसे? बाघ लग गया तो एक और मुसीबत। ठीक घास काटने का टैम है।”

ऐसी तरह तरह की अटकलें लगाते लोग उस ओर भागे जहाँ बच्चों ने मरा आदमी देखा था। दूर से ही उन्हें दिखा की गाँव का वह फौजी, जो पेड़ लगाता था, पहले से ही मरे हुए आदमी से पास बैठा था। उसने लोगों को ईशारा किया की वे पास ना आएँ। लोग दूर ही रुक गए। इतनी दूर से भी उन्हें साफ़ दिख रहा था की मरा हुआ आदमी कोई फौजी है। उसकी वर्दी में बहुत खून लगा हुआ था। जब काफ़ी भीड़ इकटठा हो गई तो गाँव का फौजी उठ कर गाँव वालों के पास गया। उसके चेहरे पर चिन्ता साफ़ झलक रही थी। वो धीरे धीरे, दुखी आवाज़ में बोला, “कोई फौजी है बेचारा। पता नहीं किसने मारा उसे। यहीं मारा या कहीं और मार कर यहाँ डाल दिया यह भी पता नहीं चल रहा। पर जो भी है, मामला गम्भीर है। फ़ौज का मामला है। गाँव के एक एक आदमी को पकड़ कर सवाल करेगी पुलिस। और फौजी पुलिस आ गई तो फिर भगवान ही मालिक है। देखा हुआ है मैंने सब कुछ। कोर्ट कचहरी के चक्कर में सारा जीवन उलझ जाएगा। तुम्हारा भी और मेरा भी। पर अगर तुम लोग चुप रहने को तैयार हो तो मैं इसे यहीं गाड़ देता हूँ। किसी को कानों कान खबर नहीं होगी। सब पहले जैसा चलते रहेगा। आदमी यहाँ का या पहाड़ी नहीं लगता इसलिए शायद कोई इसे खोजता हुआ यहाँ नहीं आएगा। क्या बोलते हो? सोच के पक्का करो और बोलो।”

अब क्या बोलते गाँव के लोग। देवभूमि में हत्या अपने आप में एक बड़ी बात थी। उन दिनों कई लोगों को तो हत्या शब्द का ठीक से मतलब भी नहीं पता था। सब एक दूसरे तो ताकने लगे। फिर उनमें से एक बुजुर्ग धीरे से बोला, “अब तुमने दुनिया देखी ठैरी बेटा। हम तो निपट गँवार हुए इसलिए तुम जो ठीक समझो करो और हमें इस कोर्ट कचहरी के चक्कर से बचा लो। सभी लोग तुम्हारा पूरा साथ देंगे इस बात के लिए तुम निश्चिन्त रहो.”

“ठीक है। कुछ करता हूँ मैं। फ़िलहाल तो यहीं गड्डा खोद कर इसे गाड़ देता हूँ। आप लोग यहीं से देखो या घर जाओ। मैं तो फौजी हुआ, कुछ हुआ भी तो जैसे तैसे अपने को बचा लूँगा।”

कमजोर मन वाले अपने घर को चल दिए और कौतुहल देखने वाले दूर से गाँव वाले फौजी तो काम करते हुए देखने लगे। फौजी ने एक बड़ा गड्डा खोदा। फिर मरे फौजी की वर्दी उतारी और उसके शरीर को गड्डे में डाल दिया। गड्डे को भर कर उसने उसके ऊपर झाडियाँ व कुछ पत्थर रख दिए ताकि जंगली जानवर उस जगह को ना खोदें। काम खत्म होने पर उसने गाँव वालों तो अपने अपने घर जाने का इशारा किया और खुद मरे फौजी की वर्दी और बैग ले कर अपने घर की ओर चल दिया।

सबको लगा बबाल टल गया पर बबाल तो अभी शुरू हुआ था। जहाँ फौजी की लाश मिली थी उस ओर से रात भर अजीब अजीब आवाजें आती रहीं। कमजोर दिल वाले तो रात भर सो ही नहीं सके।  सुबह होते ही कई गाँव वाले फौजी के पास पहुँचे तो फौजी ने उन्हें बताया कि वो भी रात भर आवाजें सुन रहा था और सो नहीं पाया। पर अब किया क्या जा सकता था। उसने कहा कि अच्छा यही होगा की इन आवाज़ों की आदत डाल ली जाए और जहाँ उस फौजी को दफनाया गया है उस ओर कोई ना जाए। मरे फौजी की आत्मा की शान्ति के लिए पूजा पाठ हो सकती थी या जागर लगाया जा सकता था पर उसमें बात फैल जाने का खतरा था इसलिए सभी लोग फौजी की बात मान गए।

पर बबाल था की बढ़ता ही गया। कुछ दिनों में वह अजीब अजीब आवाजें कुछ लोगों को भरी दोपहर में भी सुनाई दीं। अब रात के साथ साथ दिन में भी उस ओर जाना लोगों ने बन्द कर दिया। बच्चों को उस ओर जाने की सख्त मनाही थी पर बच्चे तो बच्चे ही हुए इसलिए कुछ एक मस्ती में उधर निकल जाते थे। बच्चों को छल लग न लग जाए इस डर से बच्चों के माँ बापों ने उस ओर तार बाड़ लगा दिया। अब वहाँ न बच्चे जाते और न जानवर। आवाजें निरंतर आ रहीं थी पर सबको उन आवाज़ों की आदत पड़ने लगी। समय के साथ आवाजें तो नहीं घटी पर लोगों को उसकी आदत पड़ गई इसलिए उन्हें वह आवाजें सुनाई देना बन्द हो गईं। फिर भी कभी कभी लोग उस फौजी की चर्चा कर लेते और उसके बारे में कयास लगाते। समय के साथ यह चर्चांयें भी कम हो गईं। जब कुछ सालों तक उसे खोजने कोई नहीं आया तो गाँव वाले निश्चिंत हो गए की बबाल टल गया है।

कुछ सालों बाद लोगों को यकायक एहसास हुआ की वहाँ, जहाँ वह फौजी दफनाया गया था, वहाँ एक जंगल जीवित हो रहा है। हर तरफ पेड़ ही पेड़। तरह तरह के पेड़। हर ऊँचाई के पेड़। न जाने लोग क्यों इस जंगल का बनना देख नहीं पाए। न जाने क्यों बड़े पेड़ बनने की लालसा में लहराते छोटे पौधों को वो अनदेखा कर गए। उन्हें लगा मानो यह जंगल अचानक प्रकट हो गया है। वे कयास लगाने लगे की इस चमत्कार के पीछे किस देवी या देवता का हाथ है। तब गाँव के एक बुजुर्ग ने ऐलान किया की यह जंगल उस दफनाए गए फौजी की भटकती आत्मा ने बनाया है। बात में दम था इसलिए सबको यह बात जँच गई और इस जंगल का नाम फौजी भूत का जंगल पड़ गया।

फौजी भूत के इस विशाल जंगल में अब लाखों पेड़ पौंधे हैं। हर तरह के पेड़ पौंधे – बाँझ, फल्यांट, बुरांश, सुरई, देवदार, काफल, पांगड, सेमल, भीमल, रिंगाल, हिसालू, किल्मोड़ा… और ना जाने क्या क्या! कोई आदमी बना पाता क्या ऐसा जंगल? पक्का भूत का काम है! वह तो गाँव वालों का भाग्य अच्छा है की भटकती आत्मा ने उन्हें परेशान करने की जगह जंगल बनाने का मन बना लिया नहीं तो भुत के प्रकोप से उनका गाँव खाली हो गया होता आज तक।”

अपना किस्सा पूरा कर राजू गुरु उठे और चूल्हे की आँच तेज कर चाय के बर्तन में पानी मिलाने लगे। उन्हें बड़ा गर्व महसुस हो रहा था कि सबने पूरी एकाग्रता से उनका किस्सा सुना, बिना किसी टोका टाकी के। किस्सा खत्म होने पर भी कुछ देर कर वहाँ चुप्पी छाई रही। शायद लोग इस अदभुत कथा को पचाने का प्रयास कर रहे थे। पप्पू को यह शांति खल रही थी इसलिए ना जाने क्या सोचते हुए उसने मौका का फायदा उठाते हुए बच्चन साहब की कविता का एक अंश अपने निराले अंदाज़ में महफ़िल के सामने फैंक दी –

“रात
एकाएक टूटी नींद
तो क्‍या देखता हूँ
गगन से जैसे उतर के
एक तारा
कैक्‍टस की झाड़ियों में आ गिरा है;
निकट जाकर देखता हूँ
एक अदभुत फूल काँटो में खिला है –

“हाय, कैक्‍टस,
दिवस में तुम खिले होते,
रश्मियाँ कितनी
निछावर हो गई होतीं
तुम्‍हारी पंखुड़ियों पर
पवन अपनी गोद में
तुमको झुलाकर धन्‍य होता,
गंध भीनी बाँटता फिरता द्रुमों में,
भृंग आते,
घेरते तुमको,
अनवरत फेरते माला सुयश की,
गुण तुम्‍हारा गुनगुनाते!”

धैर्य से सुन बात मेरी
कैक्‍टस ने कहा धीमे से,
“किसी विवशता से खिलता हूँ,
खुलने की साध तो नहीं है;
जग में अनजाना रह जाना
कोई अपराध तो नहीं है।”

कविता पाठ सुन कर गदगद हुए मुन्ना भाई जोर से बोले, “वाह पप्पू, वाह! तुम्हारा भी जवाब नहीं।  जब तुम मरोगे ना तो अल्मोड़ा की गलियों में रात भर कविता पाठ सुनने को मिलेगा।” मुन्ना भाई के इस वक्तव्य पर किसी ने प्रतिक्रिया नहीं दी।

फिर अगली पारी की बहस खोलते हुए हरदा बोले, “यार इस डीडीहाट वाले जंगल के बारे में तो मैंने भी सुना है पर ये भूत का किस्सा आज पहली बार सुन रहा हूँ। वैसे ये भूत प्रेत मैं तो नहीं मानता। राजू जिस गाँव वाले फौजी की बात कर रहा था वो कोई राठौर करके थे। उन्हीं ने बनाया है ये जंगल। सुना बड़ा मस्त तबियत के लेकिन थोड़े अड़ियल आदमी थे। वैसे अड़ियल लोग ही कर सकते हैं ऐसा काम।”

राजू गुरु को हरदा की बात नहीं जमी, “पढ़ लिख गए तो कहते हो भूत वूत मानना छोड़ दिया। पर हरदा जब पोता बीमार हुआ था तो जागर क्यों लगाया था? आपको लगता है एक आदमी कर सकता है यह सब? आपसे एक पेड़ तो पनपा नहीं आज तक। पिछले साल इतना बड़ा निम्बू का पेड़ दिया था आपने उसे भी सड़ा दिया। चार पेड़ पनपा कर दिखाओ हरदा फिर करना बात!”

“जो सच है वही बोल रहा हूँ राजू। किसी से भी पता करा लेना!”

बात बिगड़ती देख कर मुन्ना भाई ने तुरन्त कमान संभाली, “क्यों बात बात पर तुनक जाते हो यार। सच ही पता करना है ना तो उप्रेतीजी से पूछ लो। वैसे भी उतनी देर से चुपचाप बैठे हमारी बातों का मजा ले रहे हैं। क्यों उप्रेतीजी? आप तो मिले हो ना इन राठौरजी से?”

उप्रेतीजी यदा कदा ही यहाँ आते थे, वो भी मुन्ना भाई के साथ। बचपन के साथी तो थे ही, मौसेरे भाई भी थे। उनका पुश्तैनी मकान यहीं अल्मोड़े में था पर वे अक्सर अपनी बेटी के यहाँ हल्द्वानी चले जाते थे क्योंकि वहाँ उनके बहुत अन्य साथी थे जिनके साथ उनका लिखना पढ़ना चलता रहता था।

“दामोदर राठौर नाम था उनका। मिला था उनसे। उनका जंगल भी देखा है।”

“तो ये भूत वाला किस्सा क्या है उप्रेतीजी?”

“ये सच भी है और झूठ भी। मुझे भी यही किस्सा सुनने को मिला था इसलिए जब मैं उनसे मिला तो मैंने उन्हीं से पूछ लिया। वे पहले तो मुझे वहाँ ले गए जहाँ उस फौजी को दफनाया गया था।  क्या बढ़िया जंगल है यार, हर तरह से पहाड़ी पेड़, फलदार पेड़, पेड़ों के नीचे तरह तरह की जड़ी बूटियाँ। तबियत खुश हो गई थी वो सब देख कर। इतने तरह के मशरूम और रिंगाल तो मैंने पहले कहीं नहीं देखे थे। जंगल में घूमते हुए उन्होंने मुझे बताया की कैसे शुरू में उन्हें असफलता हाथ लगी। बीज पनप ही नहीं रहे थे। फिर उन्होंने जानकारी हासिल की कि कौन का बीज कौन सा पशु खाता है। उसके बल पर उन्होंने हिसाब लगाया की उसके पेट का तापमान और अमलता क्या होगी फिर उसी तापमान और अमलता में बीज को रख कर उसे अंकुरित कराया, केवल अपने लिए ही नहीं बल्कि उन सब के लिए जिन्हें पौंधे चाहिए थे।”

उप्रेतीजी की बात को बीच में काटते हुए राजू गुरु पूछ पड़ा, “ये जानवर के पेट की अमलता और तापमान कैसे पता किया उन्होंने? मारा क्या जानवर को?”

उप्रेतीजी हँस दिए, “ये तो मैंने नहीं पूछा पर हैं बहुत किस्से इस विषय में भी। मारा भी हो सकता है। कुछ भरोसा नहीं। बात की तह तक जाने के लिए और अपनी समझ परिपक्व करने के लिए कुछ भी कर सकते थे दामोदर राठौर। यूँ ही नहीं बनता है लाखों पेड़ों का जंगल। मूड में होते थे तो कहते थे कि उनका लक्ष्य तो करोड़ों पेड़ लगाने का है। अच्छी खासी नर्सरी बना रखी थी।”

“भूत वाली बात पर आप फिर कन्नी काट गए उप्रेतीजी?”, हरदा बोले।

“नहीं, नहीं बता रहा हूँ। उनके जंगल की सैर करके लौटते हुए उन्होंने अपने जीवन के बारे में मुझे बहुत कुछ बताया। कला के शौक़ीन आदमी हैं। प्रकृति का अदभुत सौंदर्य देखकर अभिभूत हो जाते हैं। उनकी जंगल बनाने कि मंशा के पीछे दो कारण थे। पहला, अपने गाँव वालों के लिए जंगल को नजदीक लाना और दूसरा प्रकृति प्रेम। पर जब वे जंगल लगाने लगे तो गाँव वालों ने ही उनका साथ नहीं दिया। गाँव उतना भोला होता नहीं जितना हम उसे समझते हैं। वे परेशान हो गए। झगड़ा भी किया पर फिर भी कुछ फल नहीं निकला। जब यह सब बातें चल रही थी तो एक बार मुझे भी लगा की वो भूत वाली बात टाल रहे हैं इसलिए मैंने अपना सवाल दोहराया। तब तक हम उनके घर पहुँच चुके थे। सवाल का जवाब दिये बिना वे मुझे एक कमरे के सामने ले गए फिर दरवाज़ा खोलते हुए बोले, “यह रहा भूत!”।

अन्दर का नज़ारा अदभुत था। दीवार पर तरह तरह के मुखौटे लटके थे। कमरे में कई मूर्तियाँ रखी हुई थीं। उन्होंने बताया की नाटक और कला का उन्हें हमेशा शौक रहा है इसलिए जब गाँव वालों ने उन्हें बहुत तंग कर दिया तो उन्होंने एक फौजी का मुखौटा बनाया, फिर पुतला बना कर उसे अपनी पुरानी वर्दी पहनाई, गेरू से खून का रंग बनाया और डाल दिया जंगल में। जंगल बनाने और बचाने का उनके पास और कोई रास्ता नहीं बचा था।

मुझसे कह रहे थे कि एक बार पेड़ अपनी गति पकड़ लें तो फिर उतनी मुसीबत नहीं होती। समस्या हमेशा शुरू करने की होती है। और फौजी के भूत में उनकी वो समस्या हल कर दी। लोगों को डराने के लिए उन्होंने टेप रिकॉर्डर लगा कर तरह तरह की आवाजें निकाली। रस्सी में तरह तरह की घंटियाँ बाँध कर उसके एक सिरे को पेड़ पर बाँधा और एक सिरे में टिन लगा कर उसे गधेरे में डाल दिया ताकि चलते हुए पानी से टिन हिलता रहे और आवाजें आती रहे। कह रहे थे, “उप्रेतीजी, असल जिन्दगी में नाटक करना पड़ा इस जंगल को बनाने के लिए”। मेरा तो दिमाग ही खराब हो गया था ये सब सुन कर। इतनी लगन, इतनी निष्ठा जंगल के लिए। मैं तो जब भी दामोदर भाई को याद करता हूँ तो नतमस्तक हो जाता हूँ यार। ऐसे दो चार लोग और हो जाएँ तो उत्तराखंड क्या यह दुनिया संवर जाएगी।”

राजू गुरु के चाय की दूकान में चुप्पी छा गई। लोग स्वीकृति और सम्मान में धीरे धीरे अपना सिर हिला रहे थे। शोकाकुल राजू गुरु पूरे ध्यान से चाय गिलासों में उड़ेलने लगे। उप्रेतीजी ने उनके भूत की हत्या जो कर दी थी। हरदा बैठे बैठे यूँ हिल रहे थे मानो बैठने के लिए ठोस जमीन ढूँढ रहें हो।  पर चुप्पी पप्पू को न कभी पसन्द थी और न होगी इसलिए बीड़ी की एक लम्बी कश खींच कर धुआँ छोड़ते हुए उसके अपने निराले ढंग से एलान किया, “खुदी को कर बुलंद इतना, कि हर तकदीर से पहले खुदा बंदे से खुद पूछे बता तेरी रज़ा क्या है!”

वाह वाह के बीच हरदा उठ गए और राजू गुरु से बोले, “मेरे लिए चाय मत डालना यार राजू। घर जाना है।”

“इतनी जल्दी हरदा?”, मुन्ना भाई ने पूछा।

“अरे यार श्रीमतीजी गर्मियों में बच्चों के आने से पहले स्टोर खाली करने वाली हैं। वहाँ बहुत सारा पुराना सामान पड़ा जिसे वो कूड़े में फैंक देगी। सोच रहा हूँ प्लास्टिक वगैरह अलग कर देता दूँ। चलो, कल होती है मुलाक़ात।”

हरदा धीरे धीरे घर की ओर चल दिए। चुटकी लेने के अंदाज़ में पप्पू गुनगुनाया,
“बही यह कहानी जहाँ इसको बहना था,
हमने वह कह दिया, जो हमको कहना था;
यह दुनिया है ना जो, वह हम सब की क्यारी है,
सँवारने की इसको, अब हम सबकी बारी है!”

फिर अचानक उसका शरीर झनझनाया, मानो उसे देवता लग गया हो। उसके प्रिय कवि गिर्दा की पंक्तियाँ उसके चिरपरिचित अंदाज़ में उनकी जुबान पर एक बार फिर आ गई। उसके मित्र, उसके सखा राजू गुरु ने भी सभा समाप्ति की घोषणा सी करते हुए उसके सुर में सुर मिलाया –

“राख की बात क्या, राख की करामात क्या,
कि राख का मनुष्य खाख का भी है, कि लाख का भी है,
कि लाख को भी खाख, खाख को भी लाख करता है,
सोता है तो गनेलों की तरह,
और जागता है – तो ब्रम्हाण्ड हिला देता है!”

***

स्वर्गीय श्री दामोदर राठौर की कहानी सर्वप्रथम श्री प्रभात उप्रेती जी की पुस्तक उत्तराखंड की लोक एवं पर्यावरण गाथाएँमें पढ़ी। इस कहानी का मूल प्रभात जी की कथा का पुनःकथन है जिसे पर्यावरण दिवस पर बच्चों को सुनाने के लिए लिखा था। चाहें तो आप भी इस कहानी को सुना सकते हैं – जैसा लिखा है वैसे या अपने अंदाज मेंताकि बात दूर तलक जाए!

श्री दामोदर राठौर भनौड़ा ग्राम, डीडीहाट, पिथौरागढ़ के रहने वाले थे। सन् 1960 में उन्होंने पर्यावरण संरक्षण का सफर शुरू किया और अपने जीवन काल में 160 से अधिक प्रजातियों के पौधें बाँटे तथा लगाए। उनके इस अद्भुत कार्य के लिए उन्हें भारत सरकार ने इंदिरा प्रियदर्शिनी वृक्षमित्र सम्मान से भी सम्मानित किया। कहते हैं की जब वे अपनी मृत्युशैय्या पर थे तब भी मिलने आने वालों लोगों को पौधें बाँटते रहे। ऐसे समय में भी उन्होंने लगभग 4000 पौधें वितरित किएहमें 8 करोड़ से अधिक पेड़ों की सौगात देकर श्री राठौर ने 91 वर्ष की आयु में दुनिया को अलविदा कहा।

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