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टोकरी की सीमा – वृतान्त 1

आज फिर सीमा की याद आ गई। यूँ तो सीमा की कोई सीमा नहीं होती पर जिसकी सीमा होती है उसकी भी सीमा नहीं होती। बात थोड़ी टेढ़ी और गैरजरुरी सी लगती है पर इसे संभाल कर रखियेगा – आगे काम आएगी!

मेरा हिस्सा

हम केवल हम नहीं होते। कई और हम भी होते हैं हमारे हम में। और हम भी हिस्सा होते हैं कई हमों के। इतिहास और भविष्य किसी एक का नहीं होता। वह कुछ एकों का भी नहीं होता। हो ही नहीं सकता। क्योंकि वह सब का होता है।

ख़ामख़ा

यह कहानी ख़ामख़ा की है। और शायद नहीं भी। एक जाने माने सूफी कव्वाल के मुँह से सुनी थी मूल कहानी। पता नहीं यह कहानी किसने और कब लिखी पर जब भी लिखी बेमिसाल लिखी। यह उसी अद्भुत कहानी का पुनःकथन है।

दारू करन, चरस अर्जुन

करन अर्जुन केवल फिल्मों में नहीं होते। दोगाँव की कल्याणी भी, फिल्म वाली दुर्गा की तरह, इंतज़ार कर रही है अपने अर्जुन का। रील की दुनिया से फर्क बस इतना है की वह जब करन अर्जुन को लेकर बागेश्वर मेले गई तो वहाँ केवल अर्जुन खोया, करन नहीं।

सपनों का शवगृह

जब सपने मरते हैं तो वे विलुप्त नहीं होते। वे तो पड़े रहते हैं सपनों के शवग्रह में – किसी चमत्कार के इंतज़ार में। और हम हैं कि अतीत के भूत प्रेतों के डर से सपनों के शवग्रहों में जाने से घबराते हैं। अब जाएंगे ही नहीं तो चमत्कार कैसे होगा?

चल हट

सुना उस पहाड़ के नीचे ताम्बे का भंडार मिला है जिसे निकालना देश के विकास के लिए जरूरी है। वैसे यह विकास कबीर ने कभी नहीं माँगा। माँग कर करता भी क्या? विकास इतना गतिवान होता ही नहीं की दूर दराज़ के इलाकों तक पहुँच सके।

लोग-तंत्र

लोकतंत्र और बहुसंख्यकवाद का फर्क दिखने में तो बहुत महीन सा लगता है पर होता बहुत विशाल है। इस फर्क को महसूस करने के लिए नजर नहीं नज़रिये की जरूरत पड़ती है। लगभग यही फर्क हक और ताकत के बीच भी है।

मगरमच्छ और मछलियाँ

शहरों को यह बिल्कुल अच्छा नहीं लगता कि उसका कुछ उसके काम ना आए इसी लिए शहर की सरकार सोचने लगी कि क्यों ना तालाब को एक बेहतरीन पिकनिक स्पॉट बना दिया जाए। पर एक समस्या थी। तालाब में बहुतेरे मगरमच्छ थे।

चुनाव, विक्रम और बेताल

बेताल को लाने के लिए एक बार फिर विक्रम वापस चल पड़ा। बेताल को लक्ष्य तक पहुँचाने से ज्यादा विक्रम को उस कहानी का इंतज़ार था जिसमें चुनाव के लिए कोई तीसरा विकल्प भी हो।

शुन्य की आबादी वाले गाँव की अकेली नदी

पहाड़ों में सफर करते हुए कई बार ऐसे गाँव दिखाई पड़ जाते हैं जो होते भी हैं और नहीं भी। क्षतिग्रस्त मकानों और बंजर खेतों वाले इन पगडंडी विहीन गाँवों को देख कर लगता है मानो उनका समय अतीत में कहीं थम सा गया है।